‘कश्मीर फाइल्स’ व भारतीय सिनेमा

साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है। भारतीय सिनेमा भी अपने शास्त्रीय युग में साहित्य के समकक्ष रहा है। ऐसी कई फिल्में हैं

‘कश्मीर फाइल्स’ व भारतीय सिनेमा

साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है। भारतीय सिनेमा भी अपने शास्त्रीय युग में साहित्य के समकक्ष रहा है।
ऐसी कई फिल्में हैं जिन्हें देखते समय श्रेष्ठ साहित्य वाचन सा आनंद प्राप्त होता है।

हाल ही में ‘कश्मीर फाइल्स’
रिलीज हुई जिस पर प्रधानमंत्री जी की मुहर भी लग गई।

फिल्म रिलीज के बाद परस्पर विरोधाभासी प्रतिक्रिया
सामने आईं। प्रश्न कश्मीर से विस्थापित हुए पंडितों के द्वारा झेली गई

त्रासदी, उस वक्त की परिस्थिति,
राजनीतिक घटनाक्रम को लेकर उठाए गए।

पीडि़तों की संख्या और फिल्म में जो घटनाएं दिखाई गईं उनकी
ऐतिहासिक प्रामाणिकता पर सवाल उठे।

सच तो यह है कि मानवीय पीड़ा का एहसास किसी एक के द्वारा भी
किया गया हो, तो वो तहजीबी विरासत पर लगा बदनुमा दाग ही है,

लेकिन किसी घटना को विरूपित करके प्रस्तुत
करना भी उतनी ही बड़ी तहजीबी त्रासदी है। खासकर तब, जबकि इरादे में ईमानदारी न हो। इस फिल्म के पक्षधर
भले ही यह न कह रहे हों, मगर उनका अव्यक्त भाव लोकमानस समझ रहा है।

यह संप्रेषित हो रहा है कि जवाबी
हिंसा जायज है, बहुसंख्या खतरे में है। उसके समक्ष रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार से ज्यादा बुलंद सवाल अपने को
बचाने का है।


पिछले दिनों की गई पत्थरबाजी पर किसी बहुसंख्यक को शर्मिन्दा होने की जरूरत नहीं है।

सवाल यह भी है कि
कश्मीरी विस्थापित पंडित न होकर बहुजन समाज के होते, तो क्या प्रभुत्व संपन्न शहरी अभिजात्य वर्ग की चेतना

इतनी ही आहत होती? शायद नहीं। फरीदाबाद, ऊना, हाथरस आदि सैकड़ों-हजारों घटनाएं जब घटीं तो इस वर्ग ने
दूसरी तरफ नजर फेरना उचित समझा। कोरोना लॉकडाउन में पैदल लौटते समूहों को, जिनमें अधिकांश बहुजन थे,


आदतन अशिष्ट करार दिया गया। उसी के बाद मौलिक हक से पहले मौलिक कत्र्तव्य पालन की बहस छेड़ी गई।
प्रभुत्व संपन्न वर्ग को बहुजन पर होते अत्याचार पर कन्नी काटते हुए देखते समय पूछने को जी चाहता है कि क्या
बहुजन हिंदू नहीं हैं?

यदि नहीं हैं तो फिर धर्मांतरण का बवाल खड़ा क्यों किया जाए? प्रभुत्व संपन्नता यह मानती
है कि उन पर अत्याचार का उनको वैसा नैसर्गिक हक है,

जैसा मनुस्मृति में दर्ज है। कुछ साल पहले भिंड (मध्य
प्रदेश) में जातिगत हिंसा में करीब छह दलित नौजवान प्रभुत्व संपन्न वर्ग की गोली का शिकार हुए थे।

यदि तमाम
ऐसी घटनाओं पर ‘बहुजन फाइल्स’ बने, तो उस पर क्या प्रतिक्रिया होगी? माननीय प्रधानमंत्री जी मुहर लगाएंगे?


शायद उनके संगठन फिल्म निर्माता, कलाकारों को देशद्रोही घोषित कर देंगे। ‘

कश्मीर फाइल्स’ पर प्रतिक्रिया स्वरूप
जब राजस्थान के एक युवक ने दलित अत्याचार का प्रश्न उठाया, तो उस पर सभी दक्षिणपंथी सोशल मीडिया के
जरिए टूट पड़े।

देश की आबादी में मात्र आठ फीसदी आदिवासी हैं, लेकिन वे 57 फीसदी विस्थापन झेलते हैं और
तब प्रभुत्व संपन्नता उसे विकास के लिए जरूरी करार देती है। आदिवासी जब प्रतिरोध करते हैं, तो जाहिल, विकास
विरोधी कहलाते हैं।

इसका यह कतई मतलब नहीं कि कश्मीरी पंडितों का विस्थापन, उन पर हुए अत्याचार कोई
मानवीय त्रासदी नहीं है।

किसी एक भी इनसान को विस्थापन और अत्याचार झेलना पड़े तो वह मानवता मात्र पर
लगा कलंक है।

बहरहाल, ‘कश्मीर फाइल्स’ के बाद अब फिल्मों में अपवाद स्वरूप भी नेकनीयत मुस्लिम को दिखाने
की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी।

बिना किसी आत्मबोध के उन्हें गलत ठहराया जा सकेगा। तो क्या यह आज के
समाज की सोच है या ऐसा समाज बनाने के लिए वातावरण निर्माण किया जा रहा है?