‘द कश्मीर फाइल्स’ और कुछ सवाल: आखिर क्यों चयन की सुविधा के विकल्प में फंस गईं संवेदनाएं?

भोपाल के जिस संगीत थियेटर, जो मेरे घर के बेहद करीब है में जाना तय किया। सोचा कि पहले माहौल का जायजा लिया जाए, इसलिए आधा घंटे पहले टिकट खिड़की की लाइन में जा लगा।

‘द कश्मीर फाइल्स’ और कुछ सवाल: आखिर क्यों चयन की सुविधा के विकल्प में फंस गईं संवेदनाएं?

भोपाल के जिस संगीत थियेटर, जो मेरे घर के बेहद करीब है में जाना तय किया। सोचा कि पहले माहौल का
जायजा लिया जाए, इसलिए आधा घंटे पहले टिकट खिड़की की लाइन में जा लगा। सात-आठ लोग पहले से लाइन
में थे।

उन अजनबियों में फिल्म को लेकर ही बात चल रही थी। फिल्म से जुड़े पहले नरेटिव और प्रश्नचिन्ह से मेरा
सामना उसी लाइन में हुआ।


टिकट खिड़की खुलने के इंतजार में खड़े उन लोगों में तीन शहर के अलग-अलग हिस्सों से और जुदा-जुदा पेशों के
थे। मीडियाकर्मी होने की बात छुपाकर मैं चुपचाप सुनने लगा।

पता चला कि उनमें से एक वकील था, दूसरा किसी
निजी कंपनी में नौकर और तीसरे का कोई छोटा-मोटा कारोबार था। एक ने बातों ही बातों में कश्मीरी पंडितों पर
हुए जुल्म की तुलना भोपाल में 38 साल पहले हुए गैसकांड से कर दी।


दूसरे ने कहा- छोड़ो यार, ये पुरानी बात हुई। जो हुआ उसे भूल जाओ। हम लोग तो उस वक्त प्राइमरी में पढ़ते थे।
धुंधली-सी यादें हैं।


तीसरे ने तपाक से सवाल किया-
कैसे भूल जाएं, मेरे कई नाते-रिश्तेदार और पड़ोसियों समेत 10 हजार से ज्यादा लोगों की जान हत्यारी यूनियन
कार्बाइड कारखाने से रिसी जहरीली गैस ने ली थी। हमने लोगों को जान बचाने भोपाल से भागते देखा है।
यकीनन भोपाल गैस कांड को याद रखना जरूरी है, क्योंकि वह पूंजीवादी और कॉरपोरेट सोच का प्रतीक है, लेकिन
कश्मीरी पंडितों पर अपने ही लोगों द्वारा किए गए अत्याचार को भूल जाना बेहतर है, क्योंकि नफरत से कुछ
हासिल नहीं होता।


इसी के बरक्स यह सवाल भी है कि इस नफरत का उत्स कहां और क्यों है? कोई कैसे अपने ही पूर्वजों के धर्म के
वर्तमान अनुयायियों के खिलाफ इतना क्रूर और निर्दयी हो सकता है? खासकर इसलिए क्योंकि कश्मीरी पंडितों ने
तो कभी कोई बगावत नहीं की?


कभी वहां के निजाम के खिलाफ कोई जिहाद नहीं छेड़ा। तब भी नहीं, जब कश्मीरी पंडितों के तमाम नाते-रिश्तेदार
जबरन या स्वेच्छा से एक-एक कर इस्लाम कबूलते जा रहे थे।

द्रोह करने लायक उनकी संख्या भी नहीं थी। फिर
भी वो बहुसंख्य कश्मीरी मुसलमानों की आंखों का कांटा क्यों बन गए?


उन तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला के भी, जिन्होंने कश्मीरी पंडितों को रोकने के बजाए अपने पद से
इस्तीफा दे दिया।

वो फारुख, जिनके परदादा के पिता भी कश्मीरी ब्राह्मण थे और जिनका गोत्र सप्रू था। इस बात
का जिक्र फारूख के पिता शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा ‘आतिश-ए-चिनार’ में किया है। एक बड़ा सवाल
कश्मीर में पंडितों के नरसंहार का है, जो फिल्म में बताया गया है।


इसी विचार तंद्रा में दोपहर का शो छूटा और बहुत से तनाव ग्रस्त चेहरे थियेटर से बाहर निकलते दिखे। यह तनाव
शायद फिल्म के उस आखिरी और शायद सबसे दर्दनाक सीन के कारण उपजा था,

जिसमें कश्मीरी पंडित परिवार
की एक महिला की सरेआम आबरू लूटी जाती है और बूढ़ों से लेकर बच्चों तक एक-एक कर गोली मार दी जाती है।


हो सकता है ऐसे सीन में थोड़ी नाटकीयता और अतिरेक भी हो, लेकिन संवेदना के स्तर पर वह झकझोर देता है।
कश्मीरी पंडितों का यूं अपनी ही सरजमीन से भागना या भगाया जाना ईरान में इस्लाम के आगमन के बाद वहां


का मूल पारसी धर्म मानने वाले पारसियों को देश छोड़ने पर विवश करने या फिर अपने ही धर्म के आतंकियों से
त्रस्त सीरियाइयों से की जा सकती है। सवाल यह भी कि आखिर कोई देश मूल रूप से किसका है? उनका कि जो

हजारों सालों से वहां रहते आए हैं या फिर उनका जो आज बहुसंख्य हैं और किसी धर्म के उद्भव के पूर्व का मानव
इतिहास ही खारिज करने को प्रकाश स्तम्भ मानते हैं?


ज्ञान और जुनून के बीच यही फर्क है। यह कड़वी सच्चाई है कि इस दुनिया में कुछ धर्म ऐसे हैं, जो पूरे विश्व को
अपने रंग में रंगने के आग्रह को ही धर्म की ‘वास्तविक सेवा’ मानते हैं। बाकी धर्मों में धर्मांतरण की सुविधा तो है,
लेकिन ‘पूरे घर के बदलने’ का दुराग्रह नहीं है।


अपने ही धार्मिक विश्वासों को श्रेष्ठतम् मानने की जिद नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि इस्लाम और ईसाइयत में
करुणा या मानवता का कोई स्थान ही नहीं है, बल्कि उनका जन्म शांति और करुणा की ध्वजा लेकर हुआ है।


लेकिन जब मजहब और सियासत एक हो जाते हैं तो शांति को अविवेकी हिंसा और करुणा को क्रूरता में बदलने में
देर नहीं लगती। पारसी धर्म में तो धर्मांतरण की सुविधा भी नहीं है। अगर पारसी मां-बाप हो तो ही बच्चा पारसी हो
सकता है, अन्यथा नहीं।


कुछ लोग कश्मीरी जनता के हक में तर्क देते हैं कि उनके साथ बहुत पहले से नाइंसाफी होती रही, इसलिए वहां
अलगाववाद पनपा। लेकिन यह भी सही है कि जब कश्मीर घाटी में अति अल्पसंख्यक पंडितों को, जिन्हें अब हिंदू
ही कहा जा रहा है, को बचाने का भी कोई उदाहरण भी शायद ही सामने आया। यानी जो हुआ, उसमें सभी की
मौन या प्रकट स्वीकृति थी।


इससे ज्यादा मानवता के उदाहरण तो हमने 1947 में धर्म के आधार पर हुए भारत-पाक विभाजन के समय हुई
भयानक मारकाट के दौरान देखे-सुने, जब किसी रहमदिल मुस्लिम ने सिख को तो किसी दयालु हिंदू या सिख ने
किसी मुसलमान परिवार को बचाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया। लेकिन कश्मीर में नफरत और दहशत
का यह कौन सा स्तर था?


एक बड़ा सवाल कश्मीर में पंडितों के नरसंहार का है, जो फिल्म में बताया गया है। कुछ लोगों का तर्क है कि
भौतिक रूप से इतने कश्मीरी पंडित मारे ही नहीं गए।

यह केवल प्रोपेगेंडा है। बेशक कश्मीरी पंडित लाखों की तादाद
में भागकर जम्मू और दिल्ली आए, लेकिन घाटी में आतंक के उस दौर में कितने कश्मीरी पंडित मारे गए या नहीं,
इसका सही-सही आंकड़ा शायद ही कभी सामने आएगा।


क्योंकि सरकारी रिकॉर्ड में वो मौतें दर्ज ही नहीं हैं। ठीक वैसे ही कि जैसे सरकार के पास कोरोना की दूसरी लहर में
ऑक्सीजन की कमी के कारण हुई मौतों का कोई रिकॉर्ड नहीं है। फिर भी यह संख्या लाखों में है, ऐसा मानने वालों
की आम जनता और मीडिया में कमी नहीं है।


इधर, कुछ लोग कश्मीरी पंडितों के जबरिया पलायन को न रोक पाने के लिए कश्मीर घाटी के नेताओं को
जिम्मेदार मानते हैं। लेकिन लोकतंत्र में कोई भी स्थानीय नेता बहुसंख्यकों की मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकता।
कश्मीर ही क्यों, यह तो हमने दूसरे राज्यों में भी देखा।


राज धर्म, वोट धर्म के आगे कमजोर पड़ा। कश्मीर में भी वहां के नेता बयान जारी करते रहे। क्योंकि कश्मीरी
पंडितों को बचाने से उन्हें कोई खास चुनावी लाभ नहीं होता।

‘द कश्मीर फाइल्स’ के बाद कश्मीर घाटी के नेताओं
की अपेक्षित प्रतिक्रिया ही है कि इससे नफरत और बढ़ेगी। लेकिन कश्मीरी पंडितों के घाटी छोड़ जाने के बाद वो
कम हुई, इसका भी कोई ठोस प्रमाण नहीं है।

उल्टे उसे बढ़ाया ही गया। वरना 1990 के साल दो साल बाद ही
कश्मीरी पंडित अपने घरों को लौट चुके होते।


साम्प्रदायिक दंगे इस देश में नई बात नहीं है। आवेश और घृणा में बहुतेरी हिंसा होती है। लेकिन वक्त जख्म भर
देता है। मानकर कि हमे साथ ही रहना है।

लेकिन कश्मीर में तो 32 सालों में भी कश्मीरी पंडितों के लिए ऐसा नहीं
हो पाया। उनके पुनर्स्थापन की कोई भी कोशिश जनसांख्यिकीय बदलाव की साजिश के रूप में निरूपित की जाती
है।