फागुन का श्रंगार : होली

;जीवन फागुन बन गया, गाता मंगल गीत। आओ, हम अंकर भरे, नेह भरी नव प्रीत।।

फागुन का श्रंगार : होली

होली वसंत का एक उल्लासमय पर्व है। होली को वसंत का यौवन भी कहा जाता है।इस समय प्रकृति सरसों की
पीली साड़ी पहनकर किसी की राह देखती हुई प्रतीत होती है।

हमारे पूर्वजों में भी होली त्यौहार को आपसी प्रेम का
प्रतीक माना जाता है। इसमें सभी छोटे-बड़े लोग मिलकर पुराने भेदभावों को भुला देते हैं। होली रंग का त्योहार होता
है और रंग आनन्द पर्याय होते हैं। वसंत के मौसम में प्रकृति की सुन्दरता भी मनमोहक होती है।


जब सारी प्रकृति यौवन से सराबोर हो जाती है तो मनुष्य भी आनन्द से झूमने लगता है होली पर्व इसी का प्रतीक
है। इस रंगीन उत्सव के समय पूरा वातावरण उल्लासमय हो जाता है।


वसंत में जब प्रकृति के अंग-अंग में यौवन फूट पड़ता है तो होली का त्यौहार उसका श्रंगार करने आता है। होली
एक ऋतू संबंधी त्यौहार है।

शीतकाल की समाप्ति और ग्रीष्मकाल के आरम्भ इन दोनों ऋतुओं को मिलाने वाले
संधि काल का पर्व ही होली कहलाता है। शीतकाल की समाप्ति पर किसान लोग आनन्द विभोर हो उठते हैं। उनका
पूरी साल भर का किया गया कठोर परिश्रम सफल हो उठता है, और उनकी फसल पकनी शुरू हो जाती है।
होली के त्योहार को होलिकोत्सव भी कहा जाता है। होलिका शब्द से ही होली बना है। होलिका शब्द की उत्पत्ति
संस्कृत के होल्क शब्द से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ भुना हुआ अन्न होता है। प्राचीनकाल में जब किसान अपनी
नई फसल काटता था तो सबसे पहले देवता को भोग लगाया जाता था

इसलिए नवान्न को अग्नि को समर्पित कर
भूना जाता था। उस भुने हुए अन्न को सब लोग परस्पर मिलकर खाते थे।

इसी ख़ुशी में नवान्न का भोग लगाने के
लिए उत्सव मनाया जाता था। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में इस परम्परा से होलिकोत्सव मनाया जाता है।


होली के उत्सव के पीछे एक रोचक कहानी है, जिसका काफी महत्व है। पुरातन काल में राजा हिरण्यकश्यप और
उसकी बहन होलिका के अहंकार और हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद की भक्ति से ही इस उत्सव की शुरुआत हुई थी।


हिरण्यकश्यप को ब्रह्मा द्वारा वरदान स्वरूप बहुत सी शक्तियाँ प्राप्त हुई थीं जिनके बल पर वह अपनी प्रजा का
राजा बन बैठा था।


कहा जाता है कि भक्त प्रहलाद भगवान विष्णु का नाम लेता था। प्रहलाद का पिता उसे ईश्वर का नाम लेने से
रोकता था क्योंकि वह खुद को भगवान समझता था। प्रहलाद इस बात को किसी भी रूप से स्वीकार नहीं कर रहा
था। प्रहलाद को अनेक दंड दिए गये लेकिन भगवान की कृपा होने की वजह से वे सभी दंड विफल हो गए।


हिरण्यकश्यप की एक बहन थी जिसका नाम होलिका था। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि उसे अग्नि जला
नहीं सकती थी। होलिका अपने भाई के आदेश पर प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर चिता पर बैठ गयी।

भगवान की
महिमा की वजह से होलिका उस चिता में चलकर राख हो गयी, लेकिन प्रहलाद को कुछ नहीं हुआ था। इसी वजह
से इस दिन होलिका दहन भी किया जाता है।


भगवान श्री कृष्ण से पहले यह पर्व सिर्फ होलिका दहन करके मनाया जाता था लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने इसे रंगों
के त्यौहार में परिवर्तित कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना राक्षसी का वध किया था जो होली के


अवसर पर उनके घर आई थी। बाद में उन्होंने इस त्यौहार को गोप-गोपिकाओं के साथ रासलीला और रंग खेलने के
उत्सव के रूप में मनाया।

तभी से इस त्यौहार पर दिन में रंग खेलने और रात्रि में होली जलाने की परम्परा बन
गई थी।