आरुणि का आदर्श गुरूकुल कहाँ है..? 

जिसमे राज्य को यह कर्तव्य दिया गया कि वह 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा। सभी को शिक्षा और अनिवार्य शिक्षा की तार्किकता तो सहीं है।

आरुणि का आदर्श गुरूकुल कहाँ है..? 
   (अभिव्यक्ति)
प्राचीन भारत की शिक्षा-दीक्षा की परम्परा गुरुकुल में पूर्ण होती थी। भारतवर्ष जो ऋषियों-मनीषियों की धरती है। जहां ज्ञान को परम दान माना जाता है। हम, गुरू ब्रह्मा गुरू विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।
अर्थात् गुरु को परम श्रेष्ठ मानते हैं। गुरु और गुरुकुल के संदर्भ में 90 के दशक में जन्मे बच्चों के स्कूली पाठ्यक्रम में आरुणि की गुरुभक्ति के संदर्भ में एक अध्याय उद्धृत किया गया था। जहाँ जाति, धर्म, वर्ग, अर्थ से परे समानता के साथ शिक्षा दिया जाता था।
वर्तमान परिदृश्य में शिक्षा का अद्यतन भी समय के साथ होता रहा है। गुरुकुल में वैदिक, बौद्धिक, व्यावसायिक, सामाजिक, दर्शन एवं चिकित्सा के क्षेत्र में शिक्षा दिये जाते थे।
वर्ष 1858 में ब्रिटिश शासन के दौरान कॉन्वेंट स्कूलों का कल्चर हमारे गौरवशाली गुरुकुल परम्परा पर हावी हुआ। जिसके तहत भारतीय शिक्षा अधिनियम, 1858 लागू हुआ। इसका ड्राफ्टिंग लार्ड मैकाले ने की थी। जिनका उद्देश्य कहीं ना कहीं भारतीय संस्कृति, शिक्षा और दर्शन के पद्धतियों को छिन्न-भिन्न करके रखना था। इसके पश्चात ही गुरुकुल परम्परा का विलोपन प्रारंभ हो गया।
                   आजाद भारत में शिक्षा व्यवस्था बहुत दयनीय स्थिति में थी। गुरुकुल का विघटन होने लगा वहीं तात्कालिक दौर में मिशनरी स्कूलों के संख्या भी कम थें ।
वर्ष 1951 में लगभग 13 हजार प्राथमिक और 7,000 उच्चतर माध्यमिक विद्यालय थे। तत्कालीन साक्षरता दर 12 प्रतिशत थी। वर्ष 1952-53 में माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन हुआ। वहीं 1961 में एनसीईआरटी की स्थापना हुई।
शुरुआती दौर में योजना आयोग के समक्ष अनेक चुनौतियां थीं,कि लोगों तक शिक्षा व्यवस्था कैसे निर्धारित करें वहीं दूसरी ओर स्वास्थ्य सेवाओं की गंभीर स्थिति से बच्चों की मृत्यु दर तेजी से बढ़ रही थी। वर्ष 1968 में कोठारी शिक्षा आयोग की सिफारिशों के अनुसरण में प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति को आत्मसात किया गया।
वहीं 1975 में 6 वर्ष तक के बच्चों के उचित विकास के लिए समेकित बाल विकास सेवा योजना की प्राथम्यता दर्ज हुई। शिक्षा और राज्यों दोनों के उत्तरदायित्वों को समझते हुए 1976 में शिक्षा को राज्य विषय से समवर्ती विषय में परिवर्तन करने हेतु संविधान संशोधन किया गया। सारकरण में कहें तो शिक्षा व्यवस्था में भारी परिवर्तन का दौर रहा है। वर्तमान नई शिक्षा पॉलिसी-2020 को हम आत्मसात कर रहे हैं।
             बहरहाल,भारत के संविधान के अनुच्छेद 275(1) के तहत अनुदान से एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में स्थापित किए जाते हैं।
इसी समरूप परिपेक्ष में वर्ष 2007 के 15 अगस्त के दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री के द्वारा राष्ट्र को संबोधित करते हुए, विकासखंड स्तरीय एक आदर्श विद्यालय के स्थापना के लिए छ: हजार मॉडल स्कूलों की संकल्पना की गई और स्कूलों का निर्माण होने लगा।
वर्तमान परिदृश्य में शिक्षा के स्तर को सुधार और उत्थान के लिए हिन्दी या अंग्रेजी माध्यम द्वारा शिक्षा देने की व्यवस्था के लिए नव आदर्श विद्यालयों की स्थापना का दौर तेजी से बढ़ रहा है। निजी स्कूलों की कहानी तो और गज़ब है।
एक्स्ट्रा एक्टिविटी और जोरों से प्रमोशन के साथ बकायदा सप्ताह के प्रत्येक दिनों के हिसाब से यूनिफार्म की अवधारणा और स्कूलों का फाइव स्टार होटल के समान डीजाईन का मूर्तरूप अलग ही कहानी बयाँ करता है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम, जो की संविधान के 86वें संशोधन अधिनियम,2002 के अनुसार 21(क), जोड़कर शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया है।
जिसमे राज्य को यह कर्तव्य दिया गया कि वह 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा। सभी को शिक्षा और अनिवार्य शिक्षा की तार्किकता तो सहीं है।
लेकिन कभी आइडियल, विशेष वर्ग, कभी अादर्श, कभी अच्छी शिक्षा, कभी सामान्यतः शिक्षा की ओर ईंगित करते किसी क्षेत्र विशेष में सौ बच्चों के लिए एक तैयार की गई रूपरेखा में शेष नवनिहालों के भविष्य की चिंता नहीं करने का विषय सौतेलेपन का शिकार तो नहीं हो रहा है।
                सबको समान शिक्षा मिले, सबको समान अवसर प्राप्त हो। क्या हम महर्षि धौम्य के वन-आश्रम या गुरुकुल के समरूप समानता का प्रतिनिधित्व करने वाले शिक्षा व्यवस्था की नींव नहीं रख सकते हैं। यह एक चिंतन का विषय है।
शिक्षा का दान, महादान है। तो क्या शिक्षा के अमृत को परोसने के लिए भी फिल्टरेशन ऑरोसिस्टम की व्यवस्था कुछ के लिए, कुछ के लिए सामान्य नल-कूप व्यवस्था और कुछ के लिए व्यवस्था खुले तालाब के बाहर छोड़ देने के समान तो नहीं है।
शुद्धता के स्तरों में कमी का पर्याय कौन नहीं समझ सकता है। बुद्धिजीवी वर्ग को इस विषय में अवश्य ही विचार करना चाहिए। वर्ना, कई एकलव्य समरूप प्रतिभाएँ जंगलों में दम तोड़ देंगे।