फिल्मों के माध्यम से आस्था का मजाक उड़ाना उचित नहीं?

चल चित्रों के माध्यम से जिस प्रकार से फिल्म के निर्माता निर्देशकों द्वारा हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं अपमान किया जाता है, वह निश्चित ही शर्म की बात है। इन लोगों की इतनी हिम्मत इसलिए भी हो जाती है,

फिल्मों के माध्यम से आस्था का मजाक उड़ाना उचित नहीं?

चल चित्रों के माध्यम से जिस प्रकार से फिल्म के निर्माता निर्देशकों द्वारा हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं अपमान
किया जाता है, वह निश्चित ही शर्म की बात है। इन लोगों की इतनी हिम्मत इसलिए भी हो जाती है, क्योंकि हिन्दु


समाज पुरातन काल से सहिष्णु है। वह सर्वधर्म समभाव की भावना को अंगीकार करता है। इसीलिए हिन्दू समाज
सभी धर्मों का सम्मान करता रहा है। फिल्म बनाने वाले हिन्दु समाज की इसी विशेषता के कारण ऐसा कुकृत्य


करने की दुस्साहसिक हिम्मत करता है। हम यह भली भांति जानते हैं कि ऐसी फिल्म किसी और धर्म की बना दी
जाए तो तूफान आ जाता है। कहना यही है कि यह तूफान भी जायज है, क्योंकि इस प्रकार का कृत्य एक बहुत


बड़ा धार्मिक अपराध ही है। विश्व के किसी भी व्यक्ति को ऐसी फिल्मों को धार्मिक अपराध की दृष्टि से ही देखना
चाहिए। फिर चाहे वह किसी भी धर्म का हो।


भारत पुरातन काल से वसुधैव कुटुम्बकम के भाव से समस्त विश्व को देखता है। इस भाव को पुष्ट करने के लिए
भारत के प्राचीन धर्म ग्रंथ समाज को एक होने की राह पर अग्रसर करते हैं। इसलिए भारत की संस्कृति को


विविधता में एकता के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। भारतीय दर्शन को आत्मसात करने वाले समाज में यही
भाव एक विशेष गुण के रूप में दिखाई देता है, लेकिन जब भारत में पराधीन काल रहा, उस समय भारत की इस


संस्कृति को मिटाने का उपक्रम किया गया। सांस्कृतिक मानबिन्दुओं पर कुठाराघात करने के कुत्सित प्रयास किए
गए। इतना ही नहीं आज भी ऐसी मानसिकता के व्यक्ति पूरे विश्व में रहने वाले हिन्दू समाज की आस्था पर


हमला करते दिखाई देते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सरेआम हिन्दू देवी देवताओं का अपमान किया
गया। जिसमें हम सभी को स्मरण होगा कि एक मुस्लिम चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन ने माँ सरस्वती की


आपत्तिजनक तसवीर बनाकर भारत की आस्था को रौंदने का काम किया था। विसंगति तो यह है कि कुछ संस्थाओं
द्वारा इस कृत्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर समर्थन किया गया, जबकि इसके विपरीत अभिव्यक्ति


की स्वतंत्रता के ये समर्थक किसी और धर्म के बारे में सही बात को भी गलत तरीके से प्रचारित करके बबंडर खड़ा
कर देते हैं। लेकिन हिन्दू आस्था पर हमले करने वालों के लिए ये मौन साध लेते हैं।


हालांकि यह सही है कि किसी भी समाज की आस्था का मजाक बनाना न्यायोचित नहीं कहा जा सकता और न ही
यह कृत्य किसी भी प्रकार क्षम्य ही है। ऐसा कृत्य पूरी तरह से एक बड़े अपराध की श्रेणी में ही आता है। फिर भी


मन दुखी तब होता है, जब एक जैसी घटनाओं को अलग अलग दृष्टिकोण से देखा जाता है। इस प्रकार की
मानसिकता ठीक नहीं कही जा सकती। हम सभी को भारत के मूल स्वभाव का परिचय देना चाहिए। अभी हाल ही


में टोरंटो निवासी फिल्म निर्माता लीना मणिमेकलाई ने अपनी विवादित डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'कालीÓ का जो पोस्टर
जारी किया है, उससे हिन्दू समाज उद्वेलित है। इस पोस्टर में हिन्दू समाज की आराध्य मां काली को अपत्तिजनक


अवस्था में प्रदर्शित किया है। यहां प्रश्न यह है कि फिल्म का नाम काली ही क्यों रखा गया? क्या यह सोची समझी
साजिश का हिस्सा है? सवाल यह भी है कि ऐसे कृत्यों के बाद भी हिन्दू समाज से शांति से अपील की जाती है।


जबकि ऐसे कृत्यों पर मुसलमाना या ईसाई समाज की आवाज की आवाज को विश्व स्तर पर प्रचारित करने का
अभियान चलाया जाता है। इसका मतलब यही हुआ कि मारो भी और रोने भी मत दो। किसी शायर ने कहा है कि


हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती। आज हिन्दू समाज के साथ
यही हो रहा है। वह सही बात भी करता है तो उसे कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जाता है।


इसी प्रकार वाराणसी में प्रकट हुए भगवान शिव के बारे में भी अपमानजनक टिप्पणियां की गईं। स्वाभाविक है कि
यह टिप्पणियां हिन्दू समाज की भावनाओं को आहत करने वाली ही थीं, लेकिन हिन्दू समाज ने अन्य धर्मों को पूरा


आदर देते हुए शांति बनाए रखी। इसी प्रकार फिल्म पीके में भगवान शिव का मजाक बनाया गया। फिल्म शोले में
शिवमंदिर में लड़की छेडऩे जैसा दृश्य फिल्माया जाता है। सलमान खान द्वारा अभिनीत फिल्म का नाम बजरंगी


भाईजान रखा जाता है। हालांकि फिल्मों द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले दृश्य इस प्रकार से प्रस्तुत किए जाते हैं कि
सब सामान्य जैसा लगे, लेकिन यह सामान्य नहीं होता। यह सब करने के पीछे क्या उद्देश्य है? हां, अगर इन

फिल्म बनाने वालों की मानसिकता ही खराब है तो फिर यह सबके बारे में ही ऐसा करते, लेकिन ऐसा योजना पूर्वक
हिन्दू समाज को आहत करने का काम किया जाता रहा है।


कुल मिलाकर बात यह है कि गलत तो गलत ही होता है। आस्था को अपमानित करने का कोई भी कृत्य
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं हो सकती। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आशय यही है कि हम वही बोलें जिससे


राष्ट्र और समाज की भावनाओं का सम्मान हो। अगर हमारे किसी भी कृत्य से आस्था अपमानित होती है तो यह
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कतई नहीं मानी जा सकती। यह घोर अपराध ही है।