लिव-इन से हत्या तक
लिव-इन संबंध अवैध, असांस्कृतिक, लैंगिक शोषण और सहज यौन संबंधों के माध्यम हैं। बेशक अदालतों ने इन्हें ‘कानूनी’ करार दिया है
लिव-इन संबंध अवैध, असांस्कृतिक, लैंगिक शोषण और सहज यौन संबंधों के माध्यम हैं। बेशक
अदालतों ने इन्हें ‘कानूनी’ करार दिया है और घरेलू हिंसा, संतान और आर्थिक मुआवजे के संदर्भ में,
लडक़ी के लिए, सुरक्षित माना है, लेकिन लिव-इन का यथार्थ कितना खौफनाक और डरावना है, यह
श्रद्धा टुकड़े-टुकड़े हत्याकांड से समझा जा सकता है। अब एक और श्रद्धा बनते-बनते निक्की यादव
बच गई, लेकिन उसकी भी जि़ंदगी छीन ली गई। इस प्रकरण में भी प्रेमी-प्रेमिका और लिव-इन संबंध
मौजूद थे। वह प्यार नहीं, शारीरिक आकर्षण मात्र था! वह कैसा प्यार था कि कथित प्रेमी साहिल
गहलोत ने अपनी ही लिव-इन प्रेमिका निक्की की गला घोंट कर हत्या कर दी! शुक्र है कि वह निक्की
के शव के टुकड़े-टुकड़े नहीं कर पाया, क्योंकि वक़्त नहीं मिला, क्योंकि अगले ही दिन उसकी शादी
तय थी। प्यार का अजीब प्रकरण था! एक लडक़ी के साथ प्रेम-संबंध और दूसरी के साथ शादी…! ऐसा
शख्स प्रेम और मानवीय रिश्तों के प्रति ईमानदार और गंभीर कैसे हो सकता है?
दरअसल गलतियां हमारी बेटियां भी करती रही हैं। माता-पिता उन्हें पढ़ाई या नौकरी के लिए घर-
परिवार और शहर से बाहर भेजते हैं। कमोबेश यह लैंगिक स्वतंत्रता उनका अधिकार भी है, लेकिन
सब कुछ पीछे छूट जाता है। मां-बाप को उसके लिव-इन रिश्ते की भनक तक नहीं होती। बेटियां यह
भी तर्क देने लगती हैं कि अब वह ‘बालिग’ हो गई है, लिहाजा अपने फैसले लेने को कानूनन स्वतंत्र
है। जवानी के खोखले आकर्षणों में माता-पिता भी पीछे छूट जाते हैं और बेटी बिना कुछ समझे-जाने,
किसी कथित प्रेमी के साथ, लिव-इन में रहने लगती है। संबंधों की तमाम मर्यादाएं और सामाजिक
मान्यताएं तोड़ दी जाती हैं। यदि बालिग बेटी परिपक्व होती, तो अंतत: ऐसे संबंधों की परिणति हत्या
न होती! हम ऐसे कई उदाहरण देख चुके हैं। लिव-इन की सहमति न बन पाए, तो सामूहिक बलात्कार
और हत्या की बर्बरताएं सामने आती हैं। ऐसा ‘निर्भया कांड’ देश भर में गूंजा था। जनता बहुत
आक्रोशित भी हुई थी। सडक़ों और इंडिया गेट पर ‘मोमबत्ती मार्च’ आयोजित किए गए थे। संसद का
विशेष सत्र बुलाकर कानून में संशोधन किया गया था। देश के प्रधान न्यायाधीश रहे जस्टिस जेएस
वर्मा और जस्टिस लीला सेठ ने नए कानून का प्रारूप तय किया था। यौन शोषण, छेड़छाड़, बलात्कार
और सारांश में यौन संबंधों को नए तरीके से परिभाषित भी किया गया था, लेकिन ‘निर्भया कांड’ में
इंसाफ 7 लंबे सालों के बाद मिला था। टुकड़े-टुकड़े श्रद्धा का मामला भी अदालत में न जाने कब
न्याय की दहलीज़ छू पाएगा?
यह इंसाफ अभी मिलना है और निक्की की अमानवीय हत्या का
मामला सामने आ गया है।
अदालतें कानूनी तौर पर किस सुरक्षा का दावा करती रही हैं? जि़ंदगी बचेगी, तो सुरक्षाओं की मांग
भी की जाएगी। एक मृत शरीर तो पत्थर है। भारत में शिक्षित और स्वतंत्र बेटी बिल्कुल भी सुरक्षित
नहीं है। दरअसल ऐसे प्यार की उम्र भी ऐसी होती है कि बेटियां भी बहक जाती हैं। हालांकि उनके
माता-पिता समझाते भी होंगे कि हमारी संस्कृति में शादी के बिना कोई भी संबंध बेमानी और अवैध
है। लिव-इन पाश्चात्य समाज और संस्कृति का प्रतीक है। यह हमारे समाज में स्वीकार्य नहीं है,
लेकिन दैहिक और यौन आकर्षण, अंतत:, बेटियों को हत्या की दहलीज़ तक धकेल देते हैं। और ऐसी
ज्यादातर घटनाएं राजधानी दिल्ली, उसके आसपास और महानगरों में हो रही हैं, लिहाजा अब संसद
की पहल ही जरूरी है। अदालतें तो संसद के कानून का ही पालन करती हैं। संसद को लिव-इन का
एक कठोर और बेटी-समर्थक कानून बनाना चाहिए। कमोबेश निरंकुश लडक़ों के संदर्भ में यह प्रावधान
अनिवार्य किया जाना चाहिए कि यदि वे किसी के साथ लिव-इन रिश्ते में हैं, तो वे दूसरी शादी नहीं
कर सकते।