कश्मीरी पंडितों का दर्द

कश्मीरी पंडितों यानी कश्मीर में रहने वाले हिंदुओं पर हुए अत्याचार पर बनी फिल्म ‘दि कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज होने के बाद से अब एक बार फिर कश्मीरी पंडितों का मुद्दा चर्चा में है।

कश्मीरी पंडितों का दर्द

कश्मीरी पंडितों यानी कश्मीर में रहने वाले हिंदुओं पर हुए अत्याचार पर बनी फिल्म ‘दि कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज
होने के बाद से अब एक बार फिर कश्मीरी पंडितों का मुद्दा चर्चा में है।

अब सोशल मीडिया पर लोग फिल्म के
साथ 1990 में कश्मीरी पंडितों के साथ हुई घटना को याद कर रहे हैं।

इसके अलावा राजनीतिक पार्टियां रोटी सेंकने
के लिए इस डिबेट में कूद गई हैं और एक-दूसरे पर कश्मीर पंडितों के हित के लिए किए गए कामों पर आरोप-
प्रत्यारोप कर रही हैं। साथ ही कश्मीरी पंडितों को लेकर अलग-अलग तथ्य शेयर कर रहे हैं।

इसी के बीच
पाकिस्तान के एक न्यूज चैनल की रिपोर्ट काफी वायरल हो रही है।

इसमें एक कश्मीरी युवक हिंदुओं और कश्मीरी
पंडितों के नरसंहार के लिए अपनी पीढ़ी को कोस रहा है। युवक न्यूज चैनल में चीखकर कह रहा है

कि कश्मीर के
ही बाशिंदों ने निहत्थे पंडितों का खून किया, जो हमारे अपने थे।

युवक ने नरसंहार में शामिल लोगों से कहा कि
उन्हें पंडितों से हाथ जोड़कर माफी मांग लेनी चाहिए।

इस वीडियो को ‘दि कश्मीर फाइल्स’ के डायरेक्टर ने ट्विटर
पर शेयर कर लिखा, यह युवा कश्मीरी एक पाकिस्तानी चैनल पर ‘सभी कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार के लिए सॉरी’
कह रहा है।


नरसंहार को स्वीकार करने की ओर पहला कदम सॉरी बोलना है। जावेद बेग नाम के इस कश्मीरी युवक ने पहले
भी कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के बारे में खुलकर आलोचना की थी और पंडितों से माफी मांगने की बात कही थी।


चैनल में जावेद बेग कह रहे हैं, ‘मैं जिस इलाके से ताल्लुक रखता हूं वहां 1997 के 25 मार्च को पहला नरसंहार
जो हुआ था, उसमें दर्जनों कश्मीरी पंडितों को मारा गया। निहत्थे लोग थे ये। ये पंडित किसी कश्मीरी मुसलमान
को न तो मार रहे थे और न ही ये किसी की आजादी रोक रहे थे। निहत्थे थे सभी। मैंने अपनी आंखों से देखा है।


उनमें इलाके के एक हेडमास्टर साहब भी थे। निहत्थे लोगों के साथ आपने जो किया वो जुल्म नहीं था तो क्या था।


कश्मीरी पंडितों को जिन लोगों ने मारा वो हमारे कश्मीर के लोग ही थे, कोई बाहर से नहीं आए थे। उन्होंने अपनों
का ही खून बहाया। जानवर भी अपनी नस्ल पर हमला नहीं करते,

लेकिन यहां तो अपनी ही नस्ल पर हमला किया
गया। कम से कम आज जो हममें गैरत होनी चाहिए।

जो हमारे वालिद साहब की नस्लों ने गलती की, कम से कम
एक पढ़ा-लिखा यूथ होने के नाते हमें ये कबूल करना चाहिए कि हमसे गलतियां हुई हैं।

इसके लिए जमीर की
जरूरत है। जिसमें भी बागैरत जमीर होगा, वो उस गुनाह को कबूल करेगा।’

इस बयानी से महसूस हो रहा है कि
कश्मीरी पंडितों पर असलियत में ही वीभत्स अत्याचार हुआ है।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार 2016 में कश्मीर
घाटी में केवल 2 हजार से 3 हजार हिंदू ही शेष हैं,

जबकि सन् 1990 में कश्मीर घाटी में रहने वाले हिंदुओं की
संख्या लगभग 3 लाख से 6 लाख तक थी। कश्मीरी हिंदू 19 जनवरी 1990 के दिन को ‘दुःखद बहिर्गमन दिवस’
के रूप में याद करते हैं।


जनवरी का महीना पूरी दुनिया में नए साल के लिए एक उम्मीद लेकर आता है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के लिए यह
महीना दुख, दर्द और निराशा से भरा है। 19 जनवरी प्रतीक बन चुका है उस त्रासदी का, जो कश्मीर में 1990 में


घटित हुई। जिहादी ताकतों ने कश्मीरी पंडितों पर ऐसा कहर ढाया कि उनके लिए सिर्फ तीन ही विकल्प थे, या तो
धर्म बदलो, मरो या पलायन करो। आतंकवादियों ने सैकड़ों अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार


दिया था। कई महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म कर उनकी हत्या कर दी गई। उन दिनों कितने ही लोगों की आए
दिन अपहरण कर मारपीट की जाती थी। पंडितों के घरों पर पत्थरबाजी, मंदिरों पर हमले लगातार हो रहे थे। घाटी

में उस समय कश्मीरी पंडितों की मदद के लिए कोई नहीं था। न तो पुलिस, न प्रशासन, न कोई नेता और न ही
कोई मानवाधिकार के लोग। उस समय हालात इतने खराब थे कि अस्पतालों में भी समुदाय के लोगों के साथ


भेदभाव हो रहा था। सड़कों पर चलना तक मुश्किल हो गया था। कश्मीरी पंडितों के साथ सड़क से लेकर स्कूल-
कॉलेज, दफ्तरों में प्रताड़ना हो रही थी,

मानसिक, शारीरिक और सांस्कृतिक। 19 जनवरी 1990 की रात को अगर
उस समय के नवनियुक्त राज्यपाल ने घाटी में सेना नहीं बुलाई होती तो कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम व महिलाओं


के साथ सामूहिक दुष्कर्म किस सीमा तक होता, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस रात पूरी घाटी में
लाउडस्पीकरों से ऐलान हो रहा था कि ‘काफिरों को मारो, हमें कश्मीर चाहिए’। लाखों की तादाद में कश्मीरी जिहादी


सड़कों पर मौत के तांडव की तैयारी कर रहे थे। अंत में सेना कश्मीरी पंडितों के बचाव में आई।