गाजियाबाद। उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक स्थानों में से एक कंपनी बाग जो कि आज सुभाष चंद्र बोस पार्क के नाम से जाना जाता है, की स्थापना आजादी से पूर्व वर्ष 1932 में मेरठ के तत्कालीन मजिस्ट्रेट व कलेक्टर अंग्रेज अधिकारी जेई पेडले ने की थी जिसका फाउंडेशन स्टोन आज भी बाग में अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है। आप सब को ज्ञात होगा कि पहले गाजियाबाद क्षेत्र मेरठ जिले के अंतर्गत ही आता था। कंपनी बाग आज हुक्मरानों की उपेक्षा के कारण अपने हाल पर सिसक रहा है। चाहे वह दिन प्रतिदिन अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए या अपने अतीत की सुरक्षा के लिए क्योंकि पुराना कंपनी बाग का क्षेत्रफल और आज का क्षेत्रफल में बहुत अंतर आ चुका है। आजादी से पूर्व बाग के क्षेत्रफल व आज के क्षेत्रफल का मिलान कर लिया जाए तो हकीकत सामने आ जाएगी। इसकी बेशकीमती भूमि पर माफियाओं व अधिकारियों के गठजोड़ से लगातार कब्जे होते जा रहे हैं। अभी हाल में बाग के रमते राम रोड वाले हिस्से/ कोने की भूमि पर चारदीवारी की जा रही है। चर्चा है कि किसी राजनीतिक दल की मातृ संस्था को यह भूमि उपयोगी लगी है। अगर यही हाल रहा तो एक दिन पर्यावरण की रक्षा का उद्देश्य सिर्फ प्रचार तक ही सीमित रह जाएगा। हैरान होने की बात यह भी है कि शहर भर में पर्यावरण का ढिंढोरा पीटने वाले तथा विभिन्न समारोह में पर्यावरण के नाम पर इनाम पाने के इच्छुक स्वयंभू पर्यावरण प्रेमियों की निगाह से यह लगता है जानबूझकर अछूता है क्योंकि सभी चाहते होंगे कि कौन बेमतलब पचड़े में पड़े। सार्वजनिक भूमि पर कब्जे किए जाने की आवाज उठाकर आपसी संबंध क्यों खराब किए जाएं। आश्चर्य का विषय यह भी है कि स्थानीय पार्षद जो कि प्रशासन का स्थानीय सूत्र होता है ऐसा संभव नहीं है कि पार्षद के बिना क्षेत्र में कोई भी निर्माण किया जाना संभव हो लेकिन निर्माण भी बगैर नक्शा स्वीकृत कराए चल रहा है।
ऐसा ही कंपनी बाग में बनाए गए शौचालय के निर्माण को लेकर भी चर्चा है कि शौचालय नाममात्र की नींव पर खड़ा है। आनन-फानन में शौचालय का निर्माण होने से नींव की गहराई पर अनदेखी की गई और शौचालय आज भी निर्माण को अरसा बीत जाने पर अपने उद्घाटन को किसी माननीय के समय दिए जाने का इंतजार कर रहा है। सरकार चाहे कितना भी महिला शक्ति को प्राथमिकता दिए जाने का प्रचार कर ले लेकिन धरातल पर महिला सुरक्षा को प्राथमिकता शुन्य ही प्रतीत होती है। महिला सुरक्षा के लिए बाग में आज पिंक शौचालय की स्थापना ना होना महिलाओं के प्रति प्रशासन व स्थानीय सत्तासीन नेताओं की उदासीनता ही परिलक्षित होती है।
बाग में पता नहीं पुलिस विभाग की ड्यूटी रहती है या नहीं क्योंकि सरेआम पत्तेबाजी होती देखी जा सकती है। बाग में बंदरों के आतंक का आलम यह है कि खुद चौकीदार व माली आए दिन बंदरों के काटने/ पंजे मारने से घायल होते रहते हैं। बाग में घूमने वाले यात्रियों को हाथ में पत्थर व पेड़ की टहनी लेकर चलना पड़ता है। पता नहीं कब साथ साथ चल रहे बंदरों का हमला हो जाए। बाग में चप्पे-चप्पे पर बंदरो का आतंक यह है कि बाग में यात्री कम बंदर ज्यादा दिखाई देते हैं। बस बाग में दो की ही निगाहें ज्यादा है एक बंदरों की दूसरे भूमि माफियाओं की।
इसकी अव्यवस्था को चार चांद लगाने में बिजली विभाग भी पीछे नहीं है। उसने भी बच्चों की पहुंच में आने की हद तक बिजली के तार लटकाकर नंगे छोड़े हुए हैं। कुल मिलाकर बाग का अस्तित्व दिन प्रतिदिन जागरूक नागरिकों की बाग के अतीत की रक्षा के प्रति उदासीनता की भेंट चढ रहा है। बाकी राम जाने आगे क्या होगा।