अतीक की गौरव गाथा के गवैये
आज जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं तो आतंक के पर्याय अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ को सुपुर्द ए खाक हुए एक सप्ताह बीत चुका है। एक सामान्य तांगेवाले का बेटा होने के अतिरिक्त अतीक और क्या क्या था?
आज जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं तो आतंक के पर्याय अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ को सुपुर्द ए खाक हुए एक सप्ताह बीत चुका है।
एक सामान्य तांगेवाले का बेटा होने के अतिरिक्त अतीक और क्या क्या था? उसकी चुटकी बजाने भर में हुई मौत के बाद इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए टीवी चैनलों पर आजकल कई सूरमा अवतरित हो रहे हैं।ये लोग उत्तर प्रदेश पुलिस के मुखिया से लेकर अन्य
उच्चाधिकारी रहे हैं। अपने पद और कद की गरिमा को भूलकर ये सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी बता रहे हैं कि अतीक का आतंक कैसा और कितना था।
वह थाने में आकर पुलिसकर्मियों को पीट देता था। पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारी उसके घर में बैठते थे।उसका
यह संवाद कि 'इतनी गोली मरवाऊंगा कि पोस्टमार्टम भी नहीं हो सकेगा' की चर्चा भी ये अधिकारी करते नहीं अघाते हैं। अतीक का प्रयागराज और पूर्वांचल में वही रुतबा था जो मुंबई में कभी हाजी मस्तान और फिर बाला साहेब ठाकरे का रहा।इन सभी लोगों ने
किन्हीं वर्गों के लोगों के बीच उनके फ़रिश्ते या रॉबिन हुड की छवि विकसित की। उनके दम पर राजनीति में अपनी जगह बनाई और फिर अपने तरीके से राजनीतिक सत्ता का उपयोग किया।
हाथ में हथियार और कानून में अधिकार प्राप्त लोकसेवकों ने अपनी निष्ठा और नैतिकता को अतीक अहमद जैसे माफियाओं की रखैल बना दिया। अतीक हत्याकांड की जांच कर रहे तीन तीन विशेष जांच दलों को उसके विभिन्न ठिकानों पर जाकर राजनीतिक
और प्रशासनिक पदाधिकारियों की उन गिरवी रखी नैतिकताओं को भी खोजना चाहिए। आमजन का मानना है कि अतीक और अशरफ़ को मारने वाले तीनों युवक मात्र मुखौटे हैं। यदि यह सच है तो भी अतीक जैसे माफिया को मारे जाने का किसे अफसोस
है। उसने अपने चालीस बरस के माफिया काल में अपने विरुद्ध किसी मुकदमे को अदालत में चलने नहीं दिया। सत्ता के अंधे समर्थन से वह कानून और सामाजिक व्यवस्था की पहुंच से दूर हो गया था। क्या ऐसे माफिया का किसी और प्रकार से अंत संभव हो
सकता था? यह प्रश्न उन सिरफिरे लोगों से पूछा जाना चाहिए जो उसे शहीद बता रहे हैं और उसके लिए भारत रत्न की मांग कर रहे हैं।