गांव में देसी शराब से बर्बाद हो रहे गरीब-मजदूर

बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में देसी शराब से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. अभी एक महीना पहले ही इसके सेवन से दो दर्जन से अधिक लोगों ने अपनी जान गवाई थी.

गांव में देसी शराब से बर्बाद हो रहे गरीब-मजदूर

बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में देसी शराब से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा
है. अभी एक महीना पहले ही इसके सेवन से दो दर्जन से अधिक लोगों ने अपनी जान गवाई थी.


आश्चर्य की बात यह है कि पिछले महीने जिस छपरा जिला में यह घटना हुई थी, एक माह के अंदर
ही उसकी सीमा से सटे सिवान और गोपालगंज के इलाके में देसी शराब के सेवन से मौतें हुई हैं.


हालांकि प्रशासन इस मुद्दे पर काफी गंभीरता का परिचय देते हुए लगातार छापेमारी कर देसी शराब
की भट्टियों को नष्ट कर इसमें लिप्त लोगों को गिरफ्तार कर रहा है. लेकिन ऐसा लगता है कि

अपराधी प्रशासन से दो कदम आगे चल रहा है. दरअसल अपराधी समाज की जड़ में फ़ैल चुकी इस
बुराई का लाभ उठा रहे हैं.

नशे के आदि लोगों की कमज़ोरियों का फायदा उठाते हुए गांवों में छुपकर
देसी तरीके से शराब बनाई जाती है, जो अंततः मौत का कारण बनती है.


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जन्मभूमि गुजरात के बाद बापू की कर्मभूमि बिहार, देश का दूसरा ऐसा
राज्य बना है,

जहां शराबबंदी कानून लागू हुआ. इसके लागू होने के बाद से राज्य के गरीबों, मजदूरों
और इसके आदी लोगों को नई जिंदगी जीने की राह मिलती नज़र आई थी. जो मजदूर कल तक


अपनी कमाई खुलेआम इस बुराई पर खर्च करते थे, आज काम से लौटने पर अपने बाल-बच्चों के
भविष्य के लिए सोचने लगे थे.

बिहार में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां शराब से तौबा करने वालों की न
केवल ज़िंदगी संवरती नज़र आई है बल्कि उनके बच्चों का भविष्य भी उज्जवल हुआ है. वैसे मजदूर


जो प्रतिदिन 300 रुपए कमाने के बाद 200 रुपए की शराब पीते थे, आज इसे छोड़ने के बाद वे
अपने परिवार के साथ खुशहाल जीवन बिता रहे हैं.

कल तक जो महिलाएं शराबी पति के कारण
शारीरिक और मानसिक हिंसा का शिकार होती थी,

आज वही महिलाएं पति के साथ हंसी-खुशी जीवन
बसर कर रही हैं.


भले ही पेशेवर शराबियों को शराबबंदी कानून अच्छी नहीं लग रही है, मगर बिहार के उन गरीब
मजदूरों के जीवन के लिए अद्भुत व अभिनंदनीय पहल है. प्रारंभिक विरोध के बाद भी सरकार अपने


निर्णय पर अड़ी रही और यह कानून लागू हो गई. हालांकि राजनीतिक स्वार्थ की वजह से कुछ
राजनीतिक दल और उसके नेता कुतर्क और कुविचारों से इसका विरोध जरूर करते रहे हैं. दूसरी ओर


सरकार को भी इसके कारण राजस्व की क्षति हुई, लेकिन अंततः यह कानून लागू होने में सफल रही
है. इस कानून का विरोध करने वालों से यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या शिक्षित और सभ्य के


विकास में शराबबंदी उपयुक्त कदम नहीं है? कानून लागू होने के बाद शराब के शौकीन क्या पहले
की तरह खुलेआम शराब पीकर समाज में बुराई फैलाने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं? क्या शराब पीकर


कोई व्यक्ति खुलेआम किसी महिला के साथ बदसलूकी करने की हिम्मत दिखा रहा है? यदि नहीं, तो
इस कानून का विरोध क्यों और किस तर्क पर किया जा रहा है?


हालांकि पिछले वर्ष बिहार सरकार ने शराबबंदी कानून में संशोधन करते हुए इसके प्रावधानों में थोड़ी
ढील दे दी है. अब पकड़े जाने पर 2 से 5 हजार रुपए जुर्माना देकर छूटा जा सकता है. श्रमिकों को


जेल जाने का डर नहीं और रसूखदारों की पहुंच बहुत बड़ी है. इन दोनों ही स्थितियों में बिहार में फिर
से खुलेआम टोले-कस्बे में देसी शराब का धंधा चल पड़ा है. बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के साहेबगंज


प्रखंड अंतर्गत शाहपुर मुसहर टोला भी इससे अछूता नहीं है. इस बस्ती में तकरीबन 250-300 घर में
रहने वाले शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो देसी शराब का सेवन नहीं करता होगा. आसपास के लोगों


का कहना है कि इस टोेले में अशिक्षा, गरीबी आदि इतनी है कि घर-घर ‘महुआ मीठा’ के नाम से
देसी शराब बनाई जाती है

. जिसमें विषैले पदार्थ यूरिया और सल्फास आदि मिलाए जाते हैं. इसे कुछ
लोग स्थानीय भाषा में पाउच, मुंहफोड़वा, रंथी एक्सप्रेस आदि नाम से बाजार में बेचते हैं.